अयोध्या में बन रहे भव्य मंदिर के अलावा पूरे शहर को सजाया जा रहा है, जिससे अयोध्या में कदम रखते ही भक्त को भक्तिमय हो जाएगा। ऐसे में भगवान श्रीराम के मंदिर के प्रवेश द्वार पर गज, सिंह, हनुमान और गरुड़ की मूर्तियां स्थापित कर दी गयीं हैं। अब ये प्रवेशद्वार की शोभा को बढ़ाने लगीं हैं। प्रवेश द्वार पर लगाई गईं मूर्तियां राजस्थान के भरतपुर के ग्राम बंसीपहाड़पुर के हलके गुलाबी रंग के बलुआ पत्थर से बनी मूर्तियां हैं। यह बलुआ पत्थर अपने बादामी रंग के कारण काफी विख्यात है और यह बलुआ पत्थर राजस्थान में बंसी पाल सेंडस्टोन के नाम से मशहूर है।
इन भवनों-मंदिर-गुफाओं में हुआ है बलुआ पत्थर का प्रयोग
वैसे इससे पहले भी बलुआ पत्थरों से बनी मुर्तियां कई अन्य मंदिरों में लगाई जा चुकी हैं। पुरी में प्रसिद्ध भगवान जगन्नाथ मंदिर और भुवनेश्वर में अन्य मंदिरों के साथ-साथ खोंडागिरी और उदयगिरि में पास की गुफाओं में मूर्तियां गोंडवाना बलुआ पत्थर से बनाई गई हैं। जिन्हें अथगढ़ बलुआ पत्थर कहा जाता है। जयपुर स्थित हवामहल (पैलेस ऑफ विंड्स) के निर्माण भी इसी का उपयोग किया गया है। शहर में अन्य स्मारकों को रंगसज्जा को ध्यान में रखते हुए इसका निर्माण लाल और गुलाबी रंग के बलुआ पत्थर से किया गया है। इसका रंग जयपुर शहर को दिए गए विशेष नाम गुलाबी शहर को पूर्णतः सार्थक करता है। इसका निर्माण 1799 में महाराजा सवाई प्रताप सिंह ने कराया था। इतना ही नहीं, भारतीय सार्वजनिक भवनों में संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, भारत का सर्वोच्च न्यायालय और चेन्नई में मद्रास उच्च न्यायालय भी बलुआ पत्थर से बने हैं।
राजस्थान में बलुआ पत्थर का भंडार
बता दें कि बलुआ पत्थर का 90 फीसदी से अधिक भंडार राजस्थान में है, जो भरतपुर, धौलपुर, कोटा, जोधपुर, सवाई-माधोपुर, बूंदी, चित्तौड़गढ़, बीकानेर, झालावाड़, पाली, शिवपुरी, खाटू और जैसलमेर जिलों में फैला हुआ है। बलुआ पत्थर के खनन और निर्यात मामले में भारत भी अग्रणी देशों में शुमार है।
कई देशों में होता है भारत के बलुआ पत्थर का प्रयोग
वहीं जानकारों का कहना है कि बालुकाश्म या बलुआ पत्थर (सैण्डस्टोन) एक दृढ़ शिला है। यह मुख्यतया बालू के कणों का दबाव पाकर जमने से बनती है और किसी योजक पदार्थ से जुड़ी होती है। बालू के समान इसकी रचना में भी अनेक पदार्थ विभिन्न मात्रा में होते हैं, लेकिन इसमें अधिकांश स्फटिक ही होता है। इधर, राजस्थान बलुआ पत्थर अपने नियमित समान आकार, उपयुक्त प्रकृति और स्थायित्व के कारण न केवल राजस्थान बल्कि उत्तरी भारत में भी बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाता है। इसका उपयोग कनाडा, जापान और मध्य पूर्व के देशों में भी होता है। इसका इन देशों में निर्यात होता है।