इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के कला निधि विभाग ने ‘प्रो. नामवर सिंह स्मारक व्याख्यान’ का आयोजन किया, जिसका विषय था- ‘नामवर का होना और न होना’। व्याख्यान के मुख्य वक्ता थे दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व सम कुलपति प्रो. सुधीश पचौरी और अध्यक्षता की आईजीएनसीए के अध्यक्ष राम बहादुर राय ने। इसी आयोजन में नामवर सिंह कृत पुस्तक ‘हिन्दी कविता की परम्परा’ का लोकार्पण भी किया गया। वाणी प्रकाशन से आई इस पुस्तक के संकलनकर्ता हैं नामवर सिंह के पुत्र विजय प्रकाश सिंह।
नामवर सिंह पर अपने विचार व्यक्त करते हुए व्याख्यान के मुख्य वक्ता प्रो. सुधीश पचौरी ने कहा कि विचार को लेकर हम लोग अटके रहते थे, लेकिन नामवर सिंह अटकते नहीं थे। वे सुलझाकर, रास्ते बनाकर चलते थे, लेकिन अपनी बुनियादी जमीन नहीं छोड़ते थे। उन्होंने नामवर सिंह जी से अपनी मुकालातों और सम्बंधों के कई संस्मरण भी साझा किए। इसी क्रम में उन्होंने नामवर सिंह की पत्नी से जुड़ा एक संस्मरण भी सुनाया।
प्रो. सुधीश पचौरी ने कहा, नामवर सिंह जैसा पढ़ने-लिखने वाला व्यक्ति कोई नहीं था, उनमें ज्ञान की पिपासा थी। उन जैसा जागरूक व्यक्ति कोई नहीं था। उनकी बहुत याद आती है। अब उन जैसा कोई वक्ता हिन्दी साहित्य में नहीं है। श्रोता भी नहीं है। उनके समकालीन आलोचक उनसे पीछे छूट गए। नामवर सिंह हिन्दी साहित्य के अमिताभ बच्चन हैं। उन जैसा कोई नहीं बन सका। वे आंखों में आंखें डालकर बात करते थे।
सुधीश पचौरी ने यह भी कहा कि नामवर सिंह आलोचना को साहित्य की मुख्यधारा में लेकर आए, उनके पहले हिन्दी साहित्य में केवल दो विधाएं थीं- कविता और कहानी। नामवर जी का न होना हम सब के लिए नुकसान है। वह हिन्दी के अंतिम आलोचक थे।
अध्यक्षीय भाषण देते हुए रामबहादुर राय ने कहा, नामवर सिंह ने आलोचना को समालोचना में बदला। समालोचना का मतलब है सम्यक आलोचना। वह आहार में सम्यक थे (ज्यादा नहीं खाते थे), व्यवहार में सम्यक थे और विचार में भी सम्यक थे। वह बातों-बातों में ऊंची बात समझा देते थे, ऐसी सामर्थ्य उनमें थी। नामवर सिंह पूरी ज़िंदगी ज़ंजीरों को तोड़ते रहे।
‘हिन्दी कविता की परम्परा’ पुस्तक के लोकार्पण के बाद विजय प्रकाश सिंह ने इस पुस्तक के बारे में बताया और कहा कि उनके पिता सरस्वती पुत्र थे। इस अवसर पर वाणी प्रकाशन के अध्यक्ष अरुण माहेश्वरी ने भी नामवर सिंह को आत्मीयता से याद किया।