प्रतिक्रिया | Wednesday, November 27, 2024

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3 hours ago

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संसद में प्रदूषण इतना बढ़ा, लोकतंत्र का ही दम घुटने लगा

बीते एक महीने से पूरे देश की नजरें राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली पर लगी हुई है। पहले नजरें इस बात पर लगी रही कि क्या इस बार भी राजधानी में वायु प्रदूषण अपना कहर बरपाएगा और दिल्लीवासियों को जहरीले आंसू रूलाएगा। आशंकाओं को सच करते हुए राजधानी में प्रदूषण भयावह रूप से हवा में छाने लगा और देखते ही देखते लोगों के चेहरों पर मास्क नजर आने लगा। धुंधली नजर आ रही हवा में आम जनता को उम्मीद की किरण के रूप में संसद का शीतकालीन सत्र दिखाई दिया। सिर्फ दिल्ली एवं एनसीआर वासियों को ही नहीं बल्कि पूरे देश को उम्मीद थी कि राजधानी का दम घोटते इस प्रदूषण को खत्म करने के लिए एवं अन्य देश हित के कार्यों के लिए राजधानी से ही संसद के माध्यम से अतिआवश्यक कदम उठाए जाएंगे। 

25 नवंबर की सुबह, जब संसद का शीतकालीन सत्र शुरू हुआ तो संसद के अंदर ही प्रदूषण का माहौल पैदा हो गया। संसद के अंदर ध्वनि प्रदूषण का माहौल कुछ इस कदर छाया कि देश को कुछ भी सुनने – समझने में नहीं आया। विपक्षी सांसदों ने सदन की कार्यवाही शुरू होते ही कुछ मांगों को लेकर व्यवधान डालना शुरू कर दिया। व्यवधान देखकर ऐसा प्रतीत हुआ कि सबकुछ पहले से तय था। हालांकि तय तो 24 नवंबर को हुई सर्वदलीय बैठक में भी हुआ था कि सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से बेहतर माहौल में चलाई जाएंगी। 25 नवंबर से शुरू हुआ संसद का शीतकालीन सत्र पहले शुरू होते ही 27 नवंबर तक के लिए स्थगित हो गया। बुधवार 27 नवंबर को जब संसद का सत्र एक बार फिर शुरू हुआ तो दोबारा से सदन की कार्यवाही में व्यवधान डालने की कोशिश हुई जिसके बाद सदन की कार्यवाही 28 नवंबर तक के लिए स्थगित कर दी गई। 

बीते कुछ सालों में सदन में तमाम मौकों पर एक नई परिपाटी देखने को मिल रही है जिसमें दिखाई तो सब पड़ता है लेकिन सुनाई कुछ नहीं देता। सदन के बाहर वायु प्रदूषण को मापने की तो तमाम संस्थाएं मौजूद है लेकिन सदन के भीतर होते ध्वनि प्रदूषण को मापने का कोई जरिया नजर नहीं आता। सड़कों पर प्रदूषण कम करने के लिए तो पानी का छिड़काव किया जा सकता है लेकिन संसद में होने वाले ध्वनि प्रदूषण को रोकने के लिए कोई छिड़काव कारगर नहीं होता, हां इस प्रदूषण को बढ़ाने के लिए शब्दों का छिड़काव अवश्य काम आता है। वायु प्रदूषण से जनता को निजात दिलाने के लिए तो सरकार से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक कार्रवाई करते नजर आते है लेकिन संसद को इस प्रदूषण से बचाने में उपयुक्त लोग भी बेबस नजर आ जाते है। उनकी बेबसता का एक बड़ा कारण ये भी है कि वे यदि संसद को इस प्रदूषण से बचाने के लिए कोई ठोस कदम उठाते है तो उनपर सदन के अंदर एवं सदन के बाहर तमाम तरह के आरोप लगा दिए जाते है।

बीते कुछ सालों से संसद का हर सत्र उम्मीदों के साथ शुरू तो होता है लेकिन सत्र के शुरू होते ही उम्मीदों के बादलों के ऊपर शोर – शराबे का प्रदूषण ऐसा छाता है कि लोकतंत्र का दम घुटता नजर आता है। सदन के बाहर होने वाले प्रदूषण में मास्क लगाकर कार्य किया जा सकता है लेकिन सदन की कार्यवाही मास्क के साये मे नहीं की जा सकती। सदन में उत्पन्न होने वाले व्यवधान का स्तर जिस तरह का नजर आता है उससे कई बार ये जरूर प्रतीत होता है कि जो लड़ाई लोकतंत्र के मैदान में नहीं जीती जा सकती उन्हें लोकतंत्र के मंदिर में अलग ढंग से जीतने का प्रयास किया जा रहा है। 

जब माननीय ही उकसाए, तो सदन की गरिमा कौन बचाए

सदन को सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी केवल सभापति, अध्यक्ष एवं सत्ता पक्ष की नहीं होती। सदन को चलाने की जिम्मेदारी विपक्ष की भी होती है। इन सबके बावजूद देश को ऐसा नजारा देखना पड़ा है जब सदन में ही संवैधानिक पद पर बैठे विपक्षी नेता अपने सांसदों को सदन में व्यवधान डालने के लिए प्रेरित करते नजर आए। संवैधानिक पद पर बैठे जब ऐसे नेता एक तरफ संविधान बचाने की दुहाई देते नजर आए और दूसरी तरफ सदन की गरिमा को इस प्रकार गिराते नजर आए तब देश के सामने चिंता का विषय जरूर पैदा होता है।

By-कनिष्क मिश्रा

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आखरी अपडेट: 27th Nov 2024