संसद का शीतकालीन सत्र घुट-घुट कर खत्म हो गया। संविधान संरक्षण की शपथ के नाम पर कई तरह की तिकड़म, तमाशा और तमतमाहट देखने को मिली। सब कुछ संविधान के नाम पर हुआ, सब कुछ संविधान निर्माता के नाम पर हुआ, बस वही नहीं हो पाया जिसके लिए सब जुटे थे। सदन चल नहीं पाया, बिल पास नहीं हो पाए और रही सही जो गरिमा संसद की बची हुई थी उसे भी आखिरी दिन धक्का- मुक्की में कुचल कर रद्दी कर दिया गया। हालात दुखद हैं, जिससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता।
पहले संविधान-संविधान और अब आंबेडकर का अपमान। वाकई, इन दिनों संविधान जैसे विपक्ष के नेताओं के लिए फैशन का ही प्रतीक हो गया है। शपथ लेते वक्त संविधान, सड़क पर चलते वक्त संविधान, विरोध-प्रदर्शन करते वक्त संविधान, प्रेस कॉन्फ्रेंस करते वक्त संविधान और अब तो संसद में सांसदों के साथ धक्का -मुक्की करते वक्त भी हाथ में संविधान। आप लोग ही बताएं, अब इसे क्या कहा जाए। जैसे ये संविधान नहीं, कोई खिलौना हो। जैसे बच्चे को खिलौना दिखाकर बहलाया फुसलाया जाता है, वैसे ही विपक्ष के कुछ नेता इस संविधान को दिखाकर देश की जनता को बहलाने फुसलाने की जुगत में हैं और अब तो संविधान के शिल्पकार बाबा साहेब आंबेडकर को जरिया बनाकर कुछ नेता अपनी सियासत को नए सिरे से संवारने या कहें तो चमकाने के खेल में भी लग गए हैं। एक वाक्य में कहें तो संविधान और बाबा साहेब आंबेडकर के नाम पर नैरेटिव सेट करने का नया सियासी हथकंडा भी और एजेंडा भी।
अब सवाल ये कि क्या संविधान और बाबा साहेब आंबेडकर के नाम पर नैरेटिव गढ़ना उनका सम्मान हो सकता है। हरगिज नहीं। क्योंकि संविधान देश की आत्मा है और ये प्रदर्शन नहीं, दर्शन यानी फिलॉसफी है। संविधान आत्मसात करने का विषय है, न कि आत्मघात का। संविधान देश की दिशा और दशा को दुरुस्त करने का दस्तावेज है, न कि समाज में दरार पैदा करने का हथियार। और जहां तक बात डॉक्टर भीम राव आंबेडकर की है तो वो सिर्फ एक शख्स नहीं, शख्सियत हैं और शख्सियतें, किसी पार्टी और नेता की निजी जागीर नहीं, बल्कि देश की धरोहर होती हैं। उनके प्रति धारणा नहीं, उन्हें और उनके विचारों को धारण किया जाता है और बाबा साहेब आंबेडकर उसी श्रेणी में आते हैं।
गृहमंत्री अमित शाह की ओर से आंबेडकर पर दिए गए बयान पर भी नित नए बवाली बयान भी एक फैशन हो गया है। अमित शाह ने अपने बयान में उपमा अलंकार का प्रयोग किया, विपक्ष को उनकी मंशा वाला आईना दिखाया। बयान एक संदर्भ में दिया जिसमें एक शब्द भी अपमानजनक नहीं कहा जा सकता लेकिन हंगामा मकसद था, लिहाजा मचा दिया गया बवाल। सदन में गृह मंत्री अमित शाह बता रहे थे कि कैसे कांग्रेस और जवाहरलाल नेहरू की कारस्तानी के कारण बाबा साहेब आंबेडकर को तत्कालीन सरकार से इस्तीफा देना पड़ा था। अमित शाह यह बता रहे थे कि आंबेडकर भी धारा 370 के विरोधी थे लेकिन उनकी कभी सुनी ही नहीं गई। अमित शाह की बात खरी और सीधी कि बाबा साहेब का नाम लेने के बजाय उनके सिद्धांतों पर काम करने की जरूरत है। बस यही कांग्रेस के सामने असहज स्थिति खड़ी हुई और बयान को बतंगड़ बनाने का अभियान छेड़ दिया गया।
हालांकि अमित शाह के बयान के बाद खुद प्रधानमंत्री मोदी ने आगे आकर जिस आक्रामक तरीके से कांग्रेस के खिलाफ काउंटर किया उससे ये तो साफ हो गया कि बाबा साहेब आंबेडकर के नाम पर बीजेपी अब कांग्रेस को सियासी लाभ तो नहीं लेने देगी। क्योंकि उसे भी पता है कि जिस आंबेडकर को कांग्रेस या कहें तो नेहरू गांधी परिवार ने अक्सर नकारा और अपमानित किया, उन्हीं बाबा साहेब को बीजेपी ने सिर आखों पर बैठाया। जिन जवाहरलाल नेहरू ने खुद को जीते जी भारत रत्न दे दिया था, उन्होंने और उनके विरासत संभालने वालों ने बाबा साहब को उस लायक नहीं समझा। आंबेडकर की मृत्यु के 34 साल बाद उन्हें भारत रत्न मिल सका। वो भी तब जब बीजेपी के बाहरी समर्थन से चल रही जनता दल की सरकार आई। डॉ. आंबेडकर के सम्मान में काम को ही देखें तो मोदी सरकार ने तो लंदन से लेकर दिल्ली, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश के महु तक हर जगह बाबा साहेब के नाम को स्वर्णिम अक्षरों में अंकित करने का काम किया है। दिल्ली में जो आंबेडकर फाउंडेशन पहले कुछ कमरों में चलता था अब पूरी बिल्डिंग आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर के रूप पहचानी जाती है।
लेकिन ये विडंबना भी देखिए कि जिस इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाकर विपक्षी नेताओं को जेल में डाला था, आज उनमें से कई सियासी परिवार कांग्रेस के खूनी पंजे के साए में अपनी राजनीतिक वजूद बचाने के लिए जैसे मजबूर हैं और मौकापरस्त सियासत का इससे बढ़िया उदाहरण क्या हो सकता है कि जिस मुलायम सिंह यादव ने इंदिरा गांधी के खिलाफ मोर्चा खोला था, आज उनका बेटा अखिलेश, उन्हीं इंदिरा के पोते राहुल गांधी की गोद में बैठकर अपनी पॉलिटिक्स को पुख्ता कर रहा है। तभी जब प्रधानमंत्री मोदी ने संविधान पर चर्चा के दौरान लोकसभा में इस पर चुटकी ली तो अखिलेश और उनकी पत्नी डिंपल झेंप गए और उनके चेहरे पर बनावटी मुस्कराहट साफ साफ नजर आई।
19 दिसंबर 2024 का वाक्या देश शायद ही भूले, जब संविधान की लाल किताब लिए बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर के नाम पर विरोध-प्रदर्शन के दौरान, लोकतंत्र के मंदिर संसद परिसर में एक बुजुर्ग सांसद धक्का मुक्की में घायल हो जाते हैं, जबकि दूसरे सांसद को इतनी गहरी चोट आती है कि उन्हें आईसीयू में भर्ती कराना पड़ता है। जब मामला तूल पकड़ता है तब इसी लाल किताब के वाहक 55 वर्षीय युवा नेता अपने दलित अध्यक्ष को आगे कर आंबेडकर और संविधान के नाम पर जितनी सियासत की जा सकती थी, उन्होंने की। आगे भी करेंगे क्योंकि राहुल की पार्टी कांग्रेस को 2024 के लोकसभा चुनाव में 99 सीटें आ गई जो किसी तरह अब 100 तक पहुंच गई है, ये सब उन्हें संविधान बदलने के नाम पर बनाए गए नैरेटिव का फल लगता है।
हकीकत ये है कि राहुल गांधी भी संविधान के जरिए देश की समस्याओं का समाधान नहीं, बल्कि इसे जरिया बनाकर वैसे ही अपनी सियासत का समाधान ढूंढ रहे हैं। जैसे गांधी खानदान संविधान के साथ जो करता आया है राहुल गांधी भी उसी पथ के पथिक भर हैं, जहां बस एक ही सोच कि किसी तरह फिर से सत्ता हाथ लग जाए और उनका प्रधानमंत्री बनने का सपना साकार हो जाए। और हां ! ये सपना सिर्फ उनका नहीं, उनकी मां सोनिया का भी है, जो सालों से पेंडिंग या कहें तो वेटिंग में है और जैसे हालात बनते जा रहे हैं उससे उन्हें भी बेटे का सपना अब दिवास्वप्न की तरह ही लगने लगा है। बस जब सपना टूटता है, तब खीझ उठती है और उससे शुरू होती है नकारात्मक और आक्रामक सियासत।
खैर, प्रयास करने में क्या जाता है, लेकिन इस सच से भी तो इनकार नहीं किया जा सकता कि सियासत में प्रयास तभी सफल होता है जब नीति, राजनीति और नियत ईमानदार हो। पर यहां ऐसा संदेश देने में अभी कांग्रेस सफल नहीं हो पा रही है। विपक्ष खासकर कांग्रेस पार्टी और उसके सर्वेसर्वा राहुल गांधी की नीति और राजनीति तो पहले से ही स्पष्ट हैं और अब तो उनके अपने सहयोगियों को भी उनकी राजनीति स्पष्ट समझ में आने लगी है कि ये संविधान की तो छोड़िए किसी के भी नहीं हैं।
क्योंकि उन्हें भी लग रहा है कि जिस कांग्रेस पार्टी और उसके तहत देश पर ज्यादातर समय नेहरू गांधी परिवार का ही राज रहा, उसके राज में ही संविधान और बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर का कितना अपमान हुआ उसे भला कोई कैसे भुला सकता है और अगर वो भूलता भी है तो तात्कालिक तौर पर ही। क्योंकि संविधान का गला घोंटकर 1975 में देश पर इमरजेंसी थोपकर लोकतंत्र का अपहरण करना हो, अदालती फैसलों का अपमान करना हो, नेताओं को जेल में ठूंसना हो या फिर पिछड़ी जातियों को दशकों तक उनके अधिकारों से वंचित रखना हो। नेहरू गांधी परिवार ने सियासत, संस्था, समाज सबको नेस्तनाबूद करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।
लेकिन आज उसी नेहरू गांधी खानदान के चश्मोचिराग राहुल गांधी लाल किताब लेकर देश में जाति के नाम पर समाज को बांटने और मंडल पार्ट-2 का दांव चल रहे हैं। लेकिन क्या देश को नहीं पता है कि उनके ही परनाना जवाहर लाल नेहरू ने आरक्षण को लेकर तब मुख्यमंत्रियों को जो पत्र लिखा उसमें कहा गया था कि वो किसी भी आरक्षण को पसंद नहीं करते और खासकर नौकरी में आरक्षण तो कतई नहीं। क्योंकि मैं ऐसे किसी भी कदम के खिलाफ हूं जो अकुशलता को बढ़ावा दे, जो दोयम दर्जे की तरफ ले जाए और पंडित नेहरू की इस बात का जिक्र इसी साल फरवरी 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बाकायदा संसद में किया था।
यही नहीं राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी, जो मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति को अब भी जारी रखे हुए हैं, वो आज से नहीं जवाहर लाल नेहरू के जमाने से कांग्रेस का कोर एजेंडा रहा है। क्योंकि जिस बाबा साहेब भीव राव आंबेडकर के नाम पर कांग्रेस ने पिछले चार-पांच दिनों से संसद को सियासी अखाड़ा बनाकर जैसी अराजकता फैलाई उससे तो ऐसा लगा कि कांग्रेस और गांधी परिवार जैसा आंबेडकर प्रेमी कोई हो ही नहीं सकता। लेकिन सच्चाई इसके बिल्कुल उलट है। क्योंकि इन्हीं बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर ने तत्कालीन जवाहरलाल नेहरू सरकार से इस्तीफा देते वक्त लिखा था कि संरक्षण की सबसे ज़्यादा जरूरत अनुसूचित जाति को है, लेकिन नेहरू का सारा ध्यान सिर्फ मुसलमानों पर है।
अंदाजा लगाइए कि आजादी के बाद से ही कांग्रेस और नेहरू गांधी परिवार किस हद तक मुस्लिम परस्त था और अब भाई-बहन राहुल-प्रियंका उसे और आगे ले जा रहे हैं। तभी तो जब भी राहुल और कांग्रेस हारते हैं या हार का डर सताता है तो उन्हें केरल में मुस्लिम असर वाली लोकसभा सीट वायनाड ही याद आती है और जीतने के लिए ये देश विरोधी जमात का वोट लेने से भी गुरेज नहीं करते।
लेकिन उन्हें नहीं पता कि ये 80 और 90 वाला दशक नहीं, बल्कि 21वी सदी है। देश की नीति, राजनीति, पार्टी, नेता, तौर तरीका सब बदल चुका है। लेकिन लगता है कि राहुल गांधी हार से कोई सबक नहीं लेते और अभी भी उन्होंने ये गलतफहमी पाल रखी है कि वो युवराज हैं और वो जो कहेंगे, लोग उसे करेंगे ही। जबकि करने की तो छोड़िए आज राहुल की कोई सुनने को तैयार नहीं तभी तो उनकी पार्टी के ज्यादातर युवा नेता उन्हें छोड़कर जा चुके हैं और अब जो सहयोगी हैं वो तेजी से उनका साथ छोड़ रहे हैं, क्योंकि उन्हें भी मालूम है कि राहुल का डीएनए वही है जिसने न जाने कितनी बार संविधान की आत्मा को लहूलुहान किया। यहां तक की संविधान की मूल भावना या कहें तो प्रस्तावना को ही बदल दिया। क्योंकि संविधान के शिल्पकार बाबा साहेब आंबेडकर हैं और नेहरू गांधी खानदान को आंबेडकर बिल्कुल नापसंद हैं और इसकी बानगी एक नहीं अगर गिनाने लगूं तो एक अलग से आर्टिकल लिखना पड़ेगा। लेकिन कुछ का तो जिक्र करना ही पड़ेगा।
कहा जाता है कि बाबा साहेब आंबेडकर से जब कानून मंत्रालय संभालने का निवेदन किया गया तो उन्होंने कहा कि वो योजना विभाग संभालना चाहते हैं, क्योंकि वो अर्थशास्त्री हैं। तब जवाहर लाल नेहरू ने वादा तो किया लेकिन उसे कभी पूरा नहीं किया। यहीं नहीं बाबा साहेब ने अपने इस्तीफे का एक कारण ये बताया है कि अन्य पिछड़े वर्गों के लिए उपाय करने में नेहरू टालमटोल कर रहे हैं। जबकि संविधान को बने एक साल हो गए और उन्होंने आयोग तक नहीं बनाया। यानी जिन बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर की प्रतिभा को देश और दुनिया ने सलाम किया। जिन्होंने छुआछूत, भेदभाव से लड़ कर जीत हासिल की उसे जवाहर लाल नेहरू ने अपने जीते जी हराने के लिए हर दांव चला और चुनाव तक में उन्हें हरवाया और बाद में उनकी आने वाली पीढ़ियों ने भी बाबा साहेब आंबेडकर और संविधान का कदम कदम पर अपमान किया।
कांग्रेस ने जब संविधान की मूल प्रस्तावना से छेड़छाड़ करते हुए धर्मनिरपेक्ष जैसे शब्द जोड़े होंगे तो समझिए आंबेडकर की रूह जरूर रोई होगी। जब इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाई होगी तो बाबा साहेब भले ही जिंदा न रहे हो लेकिन उनका दिल बैठ गया होगा और उससे आगे जब राजीव गांधी ने मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए शाहबानो प्रकरण को अंजाम दिया होगा तो डॉक्टर भीम राव आंबेडकर की आत्मा ने आह भरी होगी। आज जब उसी खानदान का एक युवा नेता संविधान की लाल किताब लेकर आंबेडकर का नाम लेता होगा तो बेशक उनकी आंखें गुस्से से लाल हो जाती होंगी कि अब तो बस करो। मेरे जीते जी और अब मेरे निर्वाण के बाद भी मेरे सपनों के भारत और समाज को कहां तक तोड़ोगे।
वैसे देखा जाए तो प्रादेशिक पार्टियां और क्षत्रप कांग्रेस के साथ मजबूरी में साथ खड़े, उसकी राजनीति और रणनीति को ताड़ रहे हैं। क्योंकि उन्हें भी पता है अगर कांग्रेस मजबूत हुई तो उनका कमजोर होना तय है। इसलिए वो अब किसी भी कीमत पर कांग्रेस को मजबूत नहीं होने देंगे। दरअसल, उन्हें अपना अस्तित्व बचाने के लिए फौरी तौर पर ही सही बीजेपी के विजय रथ को रोकना था जिसे वो कुछ हद तक रोक चुके हैं। ऐसे में राहुल गांधी के संविधान और आंबेडकर के अपमान वाले नैरेटिव का एजेंडा दुनिया के सामने आ चुका है और इसका प्रमाण लोकसभा चुनाव के 6 महीने के भीतर महाराष्ट्र से लेकर जम्मू-कश्मीर और हरियाणा तक कांग्रेस की हार के बाद मचा हाहाकार है।
कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि कांग्रेस को अपनी लाइन-लेंथ का विश्लेषण करना होगा। कहीं ऐसा न हो कि दल को पुनर्जीवित करने की कवायद आत्मघाती साबित न हो जाए। आज के डिजिटल दौर में सब कुछ जनता के सामने है। हर बयान, हर कवायद वोटर देख रहा है। ऐसे में वह यह समझता है कि कौन संविधान का हितैषी है, कौन आंबेडकर का असल में अनुयायी है। इस शीतकालीन सत्र में संविधान और आंबेडकर के नाम पर जिस तरह का हंगामा खड़ा करके पूरे सत्र को तबाह किया गया है, उससे कई सवाल जनता के मानस में खड़े हुए हैं और इनके दीर्घकालिक सियासी परिणाम भी सुनिश्चित हैं।
(राजकिशोर बुलंद भारत टीवी के चीफ़ एडिटर हैं। थिंक टैंक जीपीआई (ग्लोबल पॉलिसी इनसाइट्स) में भी वे एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर हैं।)