प्रतिक्रिया | Friday, October 18, 2024

22/07/24 | 12:16 pm

रचना और आलोचना के बीच पुल हो सकती है ‘नेपथ्य में विमर्श: कुछ किताबें, कुछ बातें’

सुधांशु गुप्त कहानीकार हैं। वह नियमित रूप से समीक्षाएँ भी लिखते रहे हैं। हाल ही में उनकी एक किताब प्रकाशित हुई है “कुछ किताबें कुछ बातें: नेपथ्य में विमर्श”। शीर्षक से ही लगता है कि यह आलोचना पुस्तक है। कायदे से देखा जाए तो है भी आलोचना की ही किताब। लेकिन सुधांशु गुप्त का मानना है कि जिस तरह कोई भी लेखक कहानियों में स्वयं की खोज करता है, उसी तरह आलोचना में भी वह अपनी ही खोज करता है।

रचनाओं के विषय में अपनी समझ को लेकर, कहानियों और उपन्यासों के अपने मानकों को लेकर। वह यह भी देखने की कोशिश करता है कि वैश्विक कहानियों के बरक्स हिन्दी कहानी कहाँ खड़ी है। चीज़ों को सहूलियत से समझने के लिए सुधांशु पुस्तक को चार खण्डों में बाँटा है। पहला खण्ड है-साहित्य का ग्लोब। इसमें हिन्दी में अनुदित विश्व साहित्य है। चेखव, अनातोले फ्रांस, काफ्का, मोपासां, जैक लण्डन और जार्ज आरवेल जैसे लेखक हैं, वहीं कुछ ऐसे लेखकों की रचनाओं को संकलन में शामिल किया गया है, जिनसे हिंदी साहित्य के पाठक बहुत कम परिचित हैं। खासतौर पर जितेंद्र भाटिया, यादवेंद्र, और सुरेश सलिल के संकलन। सुधांशु लिखते हैं, “आज के इस वैश्विक समय में साहित्य-प्रेमियों के लिए यह भी संभव नहीं है कि वह हिंदी या प्रादेशिक भाषाओं का साहित्य पढ़कर संतोष कर ले। उसके लिए यह जानना जरूरी हो जाता है कि दुनिया में क्या लिखा और पढ़ा जा रहा है। कहानी की वैश्विक स्थिति जानने के लिए मुझे भी दुनिया के साहित्य को कुछ हद तक पढ़ना पड़ा।”

पुस्तक का दूसरा खण्ड- कहानी की ज़मीन। इसमें समकालीन हिन्दी कहानीकारों की कहानियों पर चर्चा है। इनमें नैयर मसूद, मधुसूदन आनंद, जितेन्द्र भाटिया, सुधा अरोड़ा, नफ़ीस आफ़रीदी, कुमार अम्बुज, देवीप्रसाद मिश्र, सुरेन्द्र मनन, असगर वजाहत जैसे लेखकों की रचनाओं पर बात की गई है। यहाँ भी सुधांशु कहानियों को अपने मानकों पर परखते हैं, यह भूलकर कि वह कितने बड़े लेखक पर बात कर रहे हैं। समकालीन कहानी पर बात करते समय सुधांशु की नज़र कहानी के भविष्य पर भी रहती है।

तीसरे खण्ड का उन्होंने शीर्षक दिया है- कहानी का नया चेहरा। ज़ाहिर है इसमें सुधांशु ने कहानी के युवा चेहरे को पहचानने का प्रयास किया है। मिथिलेश प्रियदर्शी, सुषमा गुप्ता, उपासना, आकांक्षा पारे, मनीष वैद्य, तस्नीम खान और योगिता यादव में उन्हें भविष्य का कहानीकार दिखाई पड़ता है।

पुस्तक के अंतिम चौथे खण्ड- उपन्यास की अंतर्कथा, में सुधांशु नए-पुराने, हिंदी और भारतीय भाषाओं के 26 उपन्यासों पर चर्चा करते है। यहां उपन्यासों की चर्चा करते हुए सुधांशु गुप्त अनजाने में ही अपने पाठकों को समालोचना का एक सूत्र दे जाते हैं। यह सूत्र है, बतौर पाठक रचना से संबद्धता, वह भी इस तरह कि पढ़े जाने के बाद भी किताब पाठक के भीतर बनी रहे। इसी खण्ड में सुधांशु शोधपरक उपन्यास लिखे जाने के पक्ष में दिखाई नहीं देते। उन्हें लगता है कि शोधपरक उपन्यास के प्रति लेखक गंभीर नहीं हो पाता।

सुधांशु भूमिका में ही इस बात का खुलासा करते हैं कि वह अकादमिक आलोचना के विरुद्ध न होने के बावज़ूद यह पाते हैं कि रचना और आलोचना के बीच एक पुल होना चाहिए और यह किताब पाठकों के पक्ष में उस पुल का काम कर सकती है, यही इस किताब की महत्ता है।

समीक्षक: रानू जैन, पुस्तक: नेपथ्य में विमर्श: कुछ किताबें, कुछ बातें, लेखक: सुधांशु गुप्त, प्रकाशक: भावना प्रकाशन, मूल्य: 500 रुपए

 

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आखरी अपडेट: 18th Oct 2024