‘भीख’ के भरोसे आतंक की फसल काट रहे पाकिस्तान की हालत खस्ता है। घूम-घूम कर ऑपरेशन सिंदूर का रोना रो रहे पाकिस्तान के नेताओं को अब कथित ‘मित्र’ देशों से भी फूटी कौड़ी न मिलने का डर सताने लगा है। ये डर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ की ज़ुबान पर आ गया। चीन और अन्य मित्र देशों का जिक्र करते हुए शहबाज़ ने ख़ुद कहा है कि अब ये देश यह उम्मीद नहीं करते कि पाकिस्तान उनके पास बार-बार भीख का कटोरा लेकर आए। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का यह बयान बताता है कि ऑपरेशन सिंदूर की चोट से बिलबिलाए पाकिस्तान ने क्यों तुरंत ही सीजफायर के लिए गिड़गिड़ाना शुरू कर दिया था।
ऑपरेशन सिंदूर ने उखाड़े पैर
ये किसी से छिपा नहीं है कि अपने कर्मों की वजह से पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था कितने गहरे संकट में फंसी हुई है। खाने-पीने का भी संकट है लेकिन फिर भी ये देश आतंक की फैक्ट्री चलाने से बाज नहीं आता। गरीबी का रोना रो-रोकर उसने बार-बार अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और देशों से कर्ज लिया है, जिनमें चीन एक प्रमुख कर्जदाता बनकर उभरा लेकिन अब परिस्थितियां बदलती नजर आ रही हैं। चीन का रवैया भी पाकिस्तान के प्रति कठोर होता जा रहा है। पड़ोसी मुल्क के हुक्मरानों को अब डर सता रहा है कि आने वाले समय में उन्हें ‘भीख’ भी नहीं मिलने वाली यही वजह है कि ऑपरेशन सिंदूर के चार दिनों में ही पाकिस्तान ने हाथ जोड़ लिए थे। कहीं न कहीं जिस चीन के दम पर पाकिस्तान उछलता रहा है उससे आगे मदद न मिलने की उम्मीद के चलते उसे अपने हश्र का आभास हो गया था।
बैसाखियों पर टिके मुल्क को दिखाया आइना
ऐसे में पाकिस्तान की हालत ऐसी है कि न तो उससे निगलते बन रहा, न थूकते। एक तरफ वह आतंक के आकाओं को ख़ुश करने और अपने देश की जनता को गुमराह करने की कोशिश कर रहा है तो वहीं ऑपरेशन सिंदूर की चोट के निशान भी नहीं छिपा पा रहा। बार-बार शहबाज़ खुद बता रहे हैं कि भारत ने आतंक के सीने पर कितनी गहरी चोट की है तो फजर की नमाज का हवाला देकर ब्रह्मोस मिसाइल की मार के सामने बेबसी भी जाहिर कर रहे हैं। इस सबसे इतर उनका हालिया बयान और हद तक तस्वीर साफ़ कर रहा है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का यह कहना कि अब चीन से भी कर्ज मांगने की हिम्मत नहीं पड़ रही, दर्शाता है कि अब भारत के सामने खड़े रहने की हैसियत न होने की बात पाकिस्तान के नेताओं और सेना को समझ आ गई है। पाकिस्तान को ऑपरेशन सिंदूर के पहले 22 मिनट के दौरान ही समझ आ गया था कि भारत के सामने बैसाखियों पर टिका ये मुल्क एक घंटा भी नहीं टिक पाएगा। यही वजह रही कि पैर उखड़ते ही पाकिस्तान ने सीजफायर के नाम पर हाथ जोड़ लिए।
अपने ही बुने जाल में फंसा पाकिस्तान
भले ही सीजफायर के नाम पर फ़िलहाल पाकिस्तान राहत की सांस लेने की सोच रहा हो लेकिन उसके लिए एक तरफ़ कुआं है तो दूसरी तरफ़ खाई है। आतंकवाद की सरपरस्ती करते-करते वह अपने ही बुने मकड़जाल में फंस गया है। सीमापार से ऑपरेट हो रहे आतंवादी ऑर्गनाइज़ेशन और आर्मी का वहां की सरकार पर पूरी तरह कंट्रोल है तो चीन के कर्ज के तले पूरी तरह दब चुका है। पाकिस्तान ने पिछले दो दशकों में ही लगभग 30 से अधिक बार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चीन से कर्ज लिया है। 2013 के बाद, जब चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) शुरू हुआ तब से चीन से मिलने वाला कर्ज तेजी से बढ़ा है। इसके अंतर्गत पाकिस्तान पर चीन का कुल कर्ज लगभग 30 अरब डॉलर से अधिक हो चुका है। केवल 2021-22 में ही चीन ने पाकिस्तान को 4.5 अरब डॉलर का कर्ज दिया।
क्यों पैर पीछे खींच रहा चीन?
पाकिस्तान ने चीन के वाणिज्यिक बैंकों से भी ऋण लिया है जो अधिक ब्याज दरों पर होता है। चीन का कर्ज IMF या विश्व बैंक जैसे संस्थानों की तुलना में कहीं अधिक महंगा होता है। औसतन चीन 4% से 7% की दर से ब्याज लेता है। कुछ मामलों में यह दर 10% तक पहुंच गई है, खासकर वाणिज्यिक बैंकिंग ऋणों में। चीन आमतौर पर गारंटी के रूप में रणनीतिक संपत्तियां जैसे कि बंदरगाह, जमीन, खनिज आदि भी मांगता है। इसका सबसे बड़ा सबूत है बलूचिस्तान में CPEC यानी चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा। कर्ज के बदले जीन CPEC के नाम पर पाकिस्तान की ज़मीन पर कब्जा करता जा रहा है। यहां लगातार बलूच लड़ाकों द्वारा इसका विरोध किया जा रहा है, ऐसे में चीन को लगने लगा है कि यह प्रोजेक्ट उसके लिए ज्यादा फायदे की स्कीम नहीं है। चीन द्वारा पाकिस्तान को कर्ज देन में आनाकानी के पीछे ये भी एक वजह हो सकती है।
ड्रैगन की डेब्ट ट्रैप पॉलिसी?
चीन की कर्ज नीति को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘Debt Trap Diplomacy’ यानी ‘कर्ज के जाल की कूटनीति’ कहा जाता है। कर्ज के जाल में फंसाने के लिए चीन ज्यादातर गोपनीय समझौतों के साथ सीधे सरकारी-to-सरकारी कर्ज देता है। हाई इंट्रेस्ट रेट के साथ कर्ज की शर्तों को सार्वजनिक न करना उसकी बड़ी चाल रहती है। कोई भी देश उस पर पूरी तरह निर्भर हो जाए इसेक लिए वह बड़े प्रोजेक्ट्स के लिए भारी कर्ज देता है। जब कोई मुल्क भुगतान नहीं कर पाता तो संपत्तियों पर अधिकार जता लेता है, श्रीलंका का हंबनटोटा बंदरगाह इसका बड़ा उदाहरण है। चीन के कर्ज दले पाकिस्तान की भी गर्दन ड्रैगन के शिकंजे में है, ऐसे में अब आगे कर्ज न देकर चीन उसकी और संपत्तियों पर कब्जा कर सकता है।
150 से ज्यादा देश चीन के जाल में
चीन ने अब तक 150 से अधिक देशों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कर्ज दिया है, इन सारे देशों की हालत खराब है। पाकिस्तान के अलावा श्रीलंका, लाओस, कंबोडिया, ज़ाम्बिया, केन्या, मालदीव, जिबूती और अंगोला चीन के कर्ज जाल में फंसे हैं। ये देश चीन के कर्ज के बोझ तले किस कदर दबे हैं इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है, श्रीलंका को कर्ज न चुका पाने पर 99 साल के लिए हंबनटोटा बंदरगाह चीन को सौंपना पड़ा। ज़ाम्बिया अपने 30% से अधिक कर्ज के लिए चीन का देनदार है और डिफॉल्ट कर चुका है। कई देशों में चीनी परियोजनाएं स्थानीय अर्थव्यवस्था पर बोझ बन गई हैं क्योंकि राजस्व उत्पन्न नहीं हो रहा। उसकी कर्ज की शर्तें पारदर्शी नहीं होतीं, जिससे नीति निर्माण में संकट आता है। पाकिस्तान के सामने भी अब यही चुनौती है कि और कर्ज लेता है तो गर्दन फंसती जाएगी नहीं लेता है तो आतंक की फैक्ट्री कैसे चलाए?
पाकिस्तान को कर्ज न देने की वजह?
सवाल उठता है कि चीन अब पाकिस्तान को कर्ज क्यों नहीं देना चाहता? दरअसल चीन के पाकिस्तान को कर्ज न देने के पीछे कई कारण हैं। इनमें से एक प्रमुख कारण यह है कि पाकिस्तान का डिफॉल्ट रिस्क लगातार बढ़ रहा है। CPEC की परियोजनाओं से अपेक्षित लाभ नहीं मिल पा रहा। आदत से मजबूर पाकिस्तान बार-बार कर्ज पुनर्गठन की मांग करता है, पहला चुका नहीं पाता। पाकिस्तान की राजनीतिक अस्थिरता और आतंकवाद चीन की कंपनियों की सुरक्षा के लिए भी खतरा बन गई है। IMF और अन्य संस्थानों से मिलने वाले कर्ज की शर्तें चीन के हितों से टकराती हैं।
CPEC पर भी बिगड़ी बात?
इसके अलावा चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) पर भी चीन का पाकिस्तान के नेतृत्व से विश्वास उठ गया है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक 62 अरब डॉलर निवेश कर चुका ड्रैगन अब पाकिस्तान की सरकार को दरकिनार कर बलूच लड़ाकों के ग्रुप से खुद बात करे का मन बना रहा है। ऐसा होता है तो पाकिस्तान की हालत और ख़राब हो सकती है क्योंकि बलूचिस्तान ख़ुद को पाकिस्तान से अलग करने के लिए लगातार आजादी की लड़ाई लड़ रहा है, हालांकि बलूचों को चीन पर भी क़तई भरोसा नहीं है, वहां असल गुस्सा ही चीन को लेकर है। यही वजह है कि चीन के शिनजियांग प्रांत से लेकर पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह तक फैले CPEC की अधिकांश परियोजनाएं या तो अधूरी हैं या लागत से ज्यादा खर्चीली हो चुकी हैं। ऐसे में चीन पाकिस्तान पर अधिक पैसा न लुटाने के मूड में हो सकता है।
चीन पाकिस्तान को कर्ज न दे तो?
अब सवाल ये उठता है कि यदि चीन पाकिस्तान को कर्ज देना बंद कर दे तो क्या हालत होगी। सबसे बड़ा असर तो पाकिस्तान की विदेशी मुद्रा भंडार पर पड़ेगा, यह तेजी से घटेगा। आयात और मूलभूत आवश्यकताओं पर संकट तेजी से बढ़ेगा। IMF के शर्तों के बिना सर्वाइव करने का और कोई विकल्प नहीं बचेगा। पाकिस्तान को राष्ट्रीय संपत्तियों का निजीकरण करना पड़ सकता है फलस्वरूप वहां राजनीतिक अस्थिरता और बढ़ सकती है। आर्थिक स्थिति बद से बदतर हो जाएगी क्योंकि पहले से ही मुद्रास्फीति दर 25% से अधिक है। विदेशी मुद्रा भंडार 8 बिलियन डॉलर से कम है (2025 के अनुसार), जो केवल कुछ हफ्तों के आयात के लिए ही पर्याप्त है। पाकिस्तान की मुद्रा रुपया 280-300 प्रति डॉलर तक गिर चुकी है। बेरोजगारी और गरीबी लगातार बढ़ रही है और विदेशी निवेश पहले ही लगभग रुक चुका है।
चीन के कर्जे से भी नहीं होती पूर्ति
पाकिस्तान ने IMF और चीन के अलावा भी कई देशों से कर्ज लिया है। सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात (UAE), कतर, एशियाई विकास बैंक (ADB), विश्व बैंक (World Bank), इस्लामिक डेवलपमेंट बैंक (IDB), वाणिज्यिक बांड और सुकूक के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय बाजारों से भी वह भीख मांगता रहा है। पाकिस्तान IMF के सामने भी हाथ फैलाता ही रहता है। पाकिस्तान ने अब तक 24 बार IMF से बेलआउट पैकेज लिए हैं, जो किसी भी देश के सबसे अधिक हैं। IMF भी बार-बार पाकिस्तान को कर्ज देते-देते तंग आ चुका है, हालांकि एक बार फिर उसने पाकिस्तान को जो कर्ज दिया है जिस पर कई तरह के सवाल भी उठ रहे हैं। IMF ख़ुद ही राजकोषीय अनुशासन, सब्सिडी कटौती और टैक्स सुधारों की मांग करता रहा है फिर भी आतंक की फैक्ट्री चलाने वाले मुल्क पर मेहरबानी क्यों?
तबाही की तरफ बढ़ता मुल्क
कुल मिलाकर पाकिस्तान आज एक ऐसे आर्थिक दलदल में फंसा हुआ है, जहां से निकलने का रास्ता आतंकवादी गतिविधियों पर पूरी तरह से रोक, पारदर्शिता और वित्तीय अनुशासऩ की ओर ही है। यदि पाकिस्तान नहीं सुधरता है तो न तो उसके यहां कोई आर्थिक बदलाव हो सकेगा बल्कि वह और अधिक गंभीर सामाजिक और राजनीतिक संकट की ओर अग्रसर होते हुए तबाही का मंजर देखेगा।
(लेखक के पास मीडिया जगत में लगभग डेढ़ दशक का अनुभव है, वे प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया में काम कर चुके हैं)